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कहानी

झाँकी

कैलाश बनवासी


मिश्रा मन ही मन कितना मुदित था, उसे देखकर कोई भी सहज जान सकता था। खुशी चेहरे से एकदम फूटी पड़ रही थी, हालाँकि वह इसे उतना प्रकट होने नहीं देना चाहता था।

हम जिले के एस.पी. के साथ उनकी जिप्सी में सवार होकर उस डेंटल कॉलेज जा रहे थे जहाँ हाल ही में मिश्रा के बेटे का एडमिशन हुआ है। इस खुशी में उसका सूट ही नहीं, उसका तीन चौथाई गंजा सिर भी चमक रहा है, मानो यह कोई बारात हो और वह दूल्हे का बाप हो! और इसमें बाराती हम दो ही थे - मैं और देवांगन।

हम दोनों उसके इस जुगाड़ की दाद दे चुके थे।

'तूने तो इस बार बड़ा लंबा हाथ मारा, यार!' मैं उसकी ऐसी पहुँच पर जलन होने के बाद भी दंग था।

'बेटा टोपी, ये तो तेरा तुरुप का इक्का निकला!' देवांगन बोला था। देवांगन तब से उसे 'टोपी' कहता आ रहा है जब हम तीनों शिक्षक की पोस्टिंग एक गाँव में थी, और उन दिनों मिश्रा अपने तेजी से झड़ते बालों को छुपाने के लिए दिन भर टोपी पहने रहता था। 'कहाँ तो तेरे बेटे का एडमिशन मुश्किल था और कहाँ अब वहाँ से ऐसे प्रेम से बुलावा मिल रहा है! तेरे डेढ़ लाख बच गए सो अलग!'

मिश्रा पाई-पाई बचाकर रखने वाले लोगों में से है। ग्रुप में कभी भी चाय-नाश्ते के बाद उसकी जेब से पैसा नहीं निकलता। दूसरा कोई कितना ही खिला दे, खाने में कोई कमी नहीं करेगा। उसका दूसरा गुण बड़े काम है - अधिकारियों की जी हुजूरी करना! वह ऐसे अपनी मीठी-मीठी बातों के जाल में उन्हें लपेटता है, तारीफों के ऐसे पुल बाँधता है कि अधिकारी उससे हमेशा प्रसन्न रहते हैं।

और इस बार तो उसने एक बड़ी मछली - जिले के एस.पी. पर अपना जाल फेंका है!

स्कूल स्टॉफ में आजकल इसी की चर्चा है। मैडम लोग इस बात के लिए मिश्रा को जी भरके बधाई दे रही थीं। बहुत खुश होकर! वे जितनी खुशी उसके बेटे के अपने टैलेंट के दम पर राठी इंस्टीट्यूट में एडमिशन हो जाने पर जाहिर कर रही थीं, उससे कहीं ज्यादा खुशी मिश्रा के इस एप्रोच पर जाहिर कर रही थीं। एस.पी. गौतू अवस्थी ने हाल ही में इस जिले के कप्तान का चार्ज सँभाला है। और उन पर एक शिक्षक धीरेंद्र मिश्रा की पकड़ से सब हैरान थे। यहाँ तक कि मैं और देवांगन, जो पिछले पच्चीस सालों से उसके करीबी मित्र हैं, वे भी! हमको इतना तो पता था कि मिश्रा का एक साढ़ू भाई सचिवालय में स्टेनो है जिसने चार साल पहले उसके हुए ट्रांसफर को सीधे मुख्यमंत्री के आदेश पर रुकवाया था, जिसकी धौंस आज भी वह जब-तब अधिकारियों को देता रहता है। और शिक्षा विभाग में किसी की इतनी पकड़ होना।

सचमुच यह एक बड़ी बात है। इसीलिए कई बार उसकी ड्यूटी विभिन्न कामों में नहीं लगाई जाती, क्योंकि जानते हैं, तुरंत उसका नाम हटाने सचिवालय से किसी अधिकारी का फोन आ जाएगा।

मुख्यमंत्री के सचिवालय में उसके साढ़ू भाई का होना उसके लिए तुरुप का वह इक्का है जिससे उसने कई दाँव जीते हैं। अब यह पता चल रहा है कि नए एस.पी. गौतम साहब उसके इसी साढ़ू के क्लासफेलो रह चुके हैं, और यह मित्रता उसके मुख्यमंत्री के सचिवालय में होने के कारण भी है। यह संयोग ही था कि इसी दौरान राज्य पी.एम.टी. की परीक्षा के नतीजे निकले जिसमें मिश्रा का बेटा चूक गया था। अंक कम होने के कारण उसका एडमिशन अब डेंटल कॉलेज में मैंनेजमेंट कोटे से ही हो सकता था।

इसी सिलसिले में वह इस डेंटल कॉलेज के चेयरमैन के.सी. राठी यानी कोमलचंद राठी से मिलने गया था। वहाँ साढ़े तीन लाख डोनेशन की डिमांड थी।

"सर, कुछ कम नहीं हो सकता क्या?'' धीरेंद्र मिश्रा, जो ऐसे मौकों पर अपने चेहरे के भावों में मँजे हुए अभिनेता की तरह कमाल की तेजी से बदलाव ले आता है, अपने चेहरे पर सर्वथा दयनीय और उनकी कृपा आश्रित भाव लाकर बोला था, "सर, मैं एक स्कूल में मास्टर हूँ। और आप तो जाने ही है एक स्कूल मास्टर की पेमेंट कितनी होती है! इतना बड़ा एमाउंट पे करना तो सर मेरे लिए बहुत मुश्किल है। अगर दो लाख भी होते तो मैं किसी तरह कर लेता।"

पर चेयरमैन राठी भी बहुत घुटे हुए खिलाड़ी थे, बोले, "सर, मैं तो खुद स्कूल टीचरों की बहुत इज्जत करता हूँ। पर बात मेरे अकेले की नहीं, ट्रस्ट कमेटी की है। आप दो लाख दे रहे हैं तो ठीक है, बाकी के अमाउंट हम आपको बैंक से फाइनेंस करा देते हैं। आप तो यों भी सरकारी कर्मचारी हैं, बहुत इजी वे में हो जाएगा। डोंट वरी। आपके हाँ कहने की देर है। बैंकों में हमारी पकड़ है। कइयों को हमने लोन दिलवाया है।"

"पर सर, मैं तो अभी अपने हाउस लोन से ही नहीं उबर पा रहा हूँ। टेन थाउजेंड मंथली ऑलरेडी कट रहे हैं हर महीने मेरी पे से।" मिश्रा ने अपना दुखड़ा रोया।

"पर मिश्रा जी, हम भी मजबूर हैं। हमने तो आपको कम ही बताया है क्योंकि आप एक टीचर हैं। हम तो चाहते ही हैं कि साधारण या कि गरीब परिवार के बच्चों को हम ज्यादा से ज्यादा एडमिशन दें, क्योंकि ये ही बच्चे पढ़ने वाले होते हैं। बड़े घरों के बच्चे तो बिगड़े नवाब होते हैं, पढ़ाई-लिखाई में उनका वैसा ध्यान नहीं रहता। इसलिए साधरण घर के बच्चे एडमिशन लेते हैं तो हमको सच्ची खुशी मिलती है। पर मैंनेजमेंट कोटे का प्रेशर तो आप भी जानते ही हैं। लोग तो थैला और एप्रोच दोनों लिए खड़े हैं। बोलते हैं, आप आदेश तो करिए राठी साहब! ऐसी कंडीशन में मैं तो आपको यही सलाह दूँगा कि जल्द से जल्द अपने बेटे का एडमिशन यहाँ करवा लीजिए... बच्चे के फ्यूचर से बढ़ के कोई चीज माँ-बाप के लिए नहीं होती। बाहर कितना टफ कांप्टिशन हैं, आप देख ही रहे हो। इस साल चूके कि नेक्स्ट इयर इससे दुगुने लोगों के साथ कांप्टिशन करना पड़ेगा। और क्या पता कैसा रैंक आता है? ऐसा मौका आप मत गँवाइए। पैसे तो आप फिर भी कमा लेंगे।" चेयरमैन ने उसे समझाया था।

मिश्रा ततकाल कोई निर्णय नहीं ले सका था, '... ठीक है सर। मैं डिसाइड करके आपसे मिलता हूँ।'

"सर, थोड़ा जल्दी डिसाइड करिएगा... क्योंकि सब सीटें जल्दी ही भर जानी है।" चेयरमैन ने उसे चेताया।

बहुत निराश और चिंतित मिश्रा चेयरमैन राठी के आलीशान ए.सी. चेंबर से बाहर निकला तो बाहर की बड़ी तेज धूप से उसकी देह चुनचुनाने लगी। उसके दिल की धड़कन तब और बढ़ गई जब देखा कि गैलरी में राठी से मिलने वालों की लाइन और लंबी हो गई है...।

मिश्रा की यह भी आदत है कि जरा-सा कोई समस्या आई नहीं कि वो इसे जिस-तिस से बताते फिरेगा। उसके इस गुण के चलते स्कूल का पूरा स्टॉफ जान चुका था कि उसके बेटे का डेंटल कॉलेज में एडमिशन का प्लान चल रहा है और डोनेशन साढ़े तीन लाख माँग रहे हैं। इस पर प्रायः सबने यही सलाह दी कि लोन ले लो। बच्चे के फ्यूचर से बढ़के कुछ नहीं है। क्या होगा अधिक से अधिक? कुछ बरस तंगी में कटेंगे। जब बच्चा कमाने लगेगा फिर तो सब कष्ट दूर हो जाएँगे। बच्चे की खातिर इतना रिस्क लेने में कोई हर्ज नहीं। फिर यह एक रेपुटेड कॉलेज है...।

और अपने अस्थिर स्वभाव के मुताबिक वह तय नहीं कर पा रहा था क्या करे? तमाखू होंठ के नीचे दबाकर कभी मुझसे पूछता तो कभी देवांगन से, बताओ न यार मैं क्या करूँ...? क्या वहाँ एडमिशन लेना ठीक रहेगा...? और हमने देख है, मिश्रा को सलाह दो इसके बावजूद वह अनिर्णय का शिकार हो जाता है और जिस-जिस से यही पूछता फिरेगा...। आदत से मजबूर मिश्रा ने अपने साढ़ू भाई को अपनी समस्या बता दी। कहा, कि यार मैं बहुत ही परेशान हूँ। कुछ समझ में नहीं आ रहा। डोनेशन की इतनी रकम दे पाने की स्थिति नहीं है मेरी। ऐसे ही कर्ज में डूबा हुआ हूँ, तुम तो जानते ही हो... पर बच्चे का...। तुम कुछ कर सकते हो...?

और उसके साढ़ू भाई ने जो किया वो सबके सामने है। एस.पी. अवस्थी ने चेयरमैन कोमलचंद राठी को फोन किया, और चेयरमैन ने इसे फ्रॉड समझा। एस.पी. ने दूसरे ही दिन उसके कॉलेज की तीन बसों को चैकिंग के लिए खड़ा करवा दिया। बस इतने में ही मिश्रा का काम हो गया! एक लाख डोनेशन में ही।

यही नहीं, राठी इंस्टीट्यूट को आगे कोई परेशानी न हो, और संबंध मधुर बने रहे, इसके लिए फाइनल इयर के स्टुडेंट्स के फेअरवेल फंक्शन में एस.पी. को बतौर चीफ गेस्ट आमंत्रित कर लिया चेयरमैन ने।

और इस बीच, अपने साढ़ू भाई की मध्यस्थता से और जी-हुजूरी के हुनर से मिश्रा एस.पी. गौतम अवस्थी से अपनी जान-पहचान बढ़ा चुका था। जब कॉलेज का आमंत्रण मिला तो एस.पी. ने कहा, भाई, ये तो मुझको तुम्हारे कारण मिला है। तुम भी उस दिन चलो अपने दोस्तों को लेकर...।

मिश्रा के लिए इतना काफी था। वह तो सदैव ऐसे किसी अवसर की तलाश में रहता है जिसमें उसे अपना रुतबा दिखाने को मिले। उसने इस कार्यक्रम में हम दोनों को भी बहुत गर्व से बुलवा लिया ताकि उसके इन गौरवमयी क्षणों के हम गवाह रहें और जिसका आगे चलकर वह जब-तब वह आर.आई.टी. (राठी इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी) में हुए भव्य स्वागत सत्कार का दूसरों से जिक्र कर सके और कह सके, तुमको यकीन नहीं आता तो इनसे पूछ लो कि इन दोनों को भी मैं वहाँ ले गया था...।

राठी इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी शहर से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर है... जो कभी गाँव हुआ करता था।

हमारी जिप्सी दाएँ टर्न लेकर राठी इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी के भव्य गेट से प्रवेश कर रही है। सामने बहुत बड़े-बड़े चमकते होर्डिंग्स लगे हैं, संस्था का प्रचार करते, जिनमें यंगस्टर्स अँग्रेजी का 'व्ही अपनी उँगलियों से बनाए हँस रहे हैं विजयी मुस्कान से। इनमें संस्था की खूबियों का अँग्रेजी में बखान अंकित है। एक अन्य होर्डिंग में संस्था में संचालित तमाम कोर्सेज की लंबी लिस्ट है। विशाल गेट के बाद लगभग चौथाई किलोमीटर आगे संस्थान की चौमंजिली बिल्डिंग नजर आ रही हैं। हमारी गाड़ी पलक झपकते वहाँ हाजिर। सारे बिल्डिंग 'वेल अपटू डेट' कंडीशन में है अपनी चमक से देखने वालों को चमत्कृत करते। खिड़कियों में लगे कीमती ग्लासेज हों या रेलिंग्ज के सिल्वर चमक से चमचमाते पाइप्स... सब मुंबइया में बोले तो एकदम झक्कास!

इस संस्थान के विशाल पोर्च के सामने हैं, जिसके आगे इनके विभिन्न ऑफिस हैं, सब पारदर्शी ग्लास से मढ़े। यहाँ पर लड़के-लड़कियों की गहमा-गहमी है। ये सारे यूथ का ड्रेसकोड हो चुके जींस-टी शर्ट में हैं, अपनी उम्रगत कमनीयता से भरे और बरबस सबका ध्यान खींचते। इसकी बाई तरफ बाइक स्टैंड है, ढेर सारी स्कूटियों और बाइक से भरे।

इस बिल्डिंग से कुछ पीछे नई बिल्डिंग के निर्माण कार्य चल रहे हैं। देहाती मजदूर स्त्री-पुरुष काम में जुटे दिखाई पड़ रहे हैं। ईंट रेत ढोती रेजाएँ और दीवार जोड़ते मिस्त्री साँवले, पसीने से भीगे...। मैं सोचता हूँ, यहाँ पढ़ रहे कितने स्टुडेंट्स का ध्यान इनकी तरफ जाता होगा...? या कभी ये इनके बारे में क्षण भर को भी कभी सोचते होंगे...? कि इनके बच्चे कहाँ पढ़ते हैं...? और ये मजदूर, क्या यहाँ इन बच्चों को देखकर इनके मन में कभी भूले से भी यह ख्याल नहीं आता होगा कि काश, हमारे बच्चे भी यहाँ पढ़ सकते...? मैं ये सब किसी से नहीं पूछता। शायद यहाँ ये सब सवाल बिलकुल बेमानी है। यहाँ ये महज लेबर हैं जिनका आज और कल ठेकेदारों के पास कब का गिरवी रखा जा चुका है और ये ऐसी बातें सोचना भी भूल चुके हैं जैसे...।

चेयरमैन के.सी. राठी हमारे स्वागत में पोर्च के नीचे दोनों हाथ जोड़े खड़े हैं, कान तक फैली मुस्कान लिए... बारातियों के स्वागत में लड़की के पिता के समान...।

वेलकम सर! वेलकम! गाड़ी से हमारे नीचे उतरते ही वह बहुत तत्परता से हम सबसे गर्मजोशीपूर्वक हाथ मिलाते हैं। पचपन-छप्पन की उम्र में भी राठी साहब में गजब की चपलता और व्यवसायिक दक्षता है। मिश्रा गदगद है। उसकी छाती गर्व से फूल गई है।

वहाँ खड़े स्टुडेंट्स पुलिसिया गाड़ी के कारण किंचित भय और आदर के मिश्रित भाव से हमें ताक रहे हैं जिनके स्वागत में चेयरमैन खुद आए हैं। निश्चय ही हममें से किसी का भी लुक, एस.पी. साहब को छोड़, ऐसा नहीं है जो अतिथि का दर्जा रखता हो। एस.पी. साहब सिविल ड्रेस में भी होने के बावजूद एस.पी. ही लग रहे हैं।

हम अब ऑफिस की ओर बढ़ रहे हैं जो थोड़ा राउंड लेकर जाना पड़ता है। बीच में खूब हरा-भरा लॉन है और चारों तरफ क्यारियाँ, जिनमें तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं।

चलते हुए देवांगन मेरे कान में फुसफुसाता है... आपको पता है, पहले ये लोग मंडी के पास राइस मिल चलाते थे, नेताओं के आगे-पीछे घूमते थे। आज इतनी तरक्की कर ली है कि नेता इनके आगे-पीछे घूमते हैं... वो भी सिर्फ दस-बारह बरस के भीतर...।

हमें शानदार एयर-कंडीशन हाल के लग्जरी सोफे में बिठाया गया है। मैं और देवांगन इस लग्जरियत से तनिक सकुचा रहे हैं, अपने निम्नवर्गीयबोध से, लेकिन मिश्रा को देखो, कैसे ऐसी शान से बैठा हुआ है जैसे बचपन से इसमें बैठता आ रहा हो। वह दिल खोलकर संस्थान की, चेयरमैन की तारीफ करने में जुटा हुआ है। चेयरमैन अर्धवृत्ताकार टेबल के पीछे अपनी शानदार कुर्सी पर धँसे हुए हैं। उनके सामने एक लैपटॉप है और एक सी.सी.टी.वी. स्क्रीन है जिसमें वह अपने पूरे साम्राज्य के जिस हिस्से को देखना चाहे देख सकते हैं। हम सभी उनके इस साम्राज्य और नए-नए तकनीक वैभव से अभिभूत हैं।

संस्थान का यूनिफॉर्म पहना वेटर हमें पानी सर्व कर रहा है... काँच के एकदम साफ गिलासों में...।

"सर, लीजिए पानी...।" राठी जी बहुत अच्छी तरह मेहमाननवाजी कर रहे हैं, 'हम तो सर, कब से आपको बुलाना चाह रहे थे...।"

फुर्सत नहीं मिल पाती काम के कारण, राठी साहब। "अवस्थी साहब ने अपनी व्यस्तता जताई, "और ये तो आपका स्नेह है जिसके चलते मैं यहाँ चला आया...।"

"बड़ी मेहरबानी सर जी आपकी, जो आपने हमारे लिए अपना कीमती समय निकाला!'' चेयरमैन ने खीसें निपोरकर अपनी कृतज्ञता जाहिर की।

एस.पी. साहब ने कहा, "बहुत फैला हुआ काम है आपका भाई। कितने एकड़ में है?''

"अभी तो अस्सी एकड़ में है। गाँव वालों से काफी मशक्कत के बाद इधर तीस एकड़ खरीदने की एक और डील हो गई है, इसके बाद अपन हंड्रेड प्लस में आ जाएँगे।" अपनी सफलता पर सुकून की एक बड़ी मुस्कुराहट उभरी है उनके चेहरे पर। इसके बाद वे अपनी संस्था की तरक्की का इतिहास बताने लगे कि कैसे एक छोटे-से कंप्यूटर डिप्लोमा सर्टिफिकेट कोर्स से इसकी शुरुआत हुई थी... और कब समय बीतता गया और कब वह इस मुकाम तक पहुँच गए, उन्हें खुद भी पता नहीं चल सका। और आज इस इंस्टीट्यूट में कितने कोर्से चल रहे हैं, ठीक-ठीक उन्हें भी नहीं पता। इंजीनियरिंग की ही बारह स्ट्रीम चल रही है।

देवांगन ने जोड़ा, "इधर इंजीनियरिंग और टेक्निकल कोर्सेज ने मार्केट में जो बूम पकड़ा है उसके चलते सब इसी तरफ आ रहे हैं। अब देखिए न, हमारे ही शहर में आज कितने इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गए हैं। पहले तो यह कोई सोच भी नहीं सकता था। एक या दो इंजीनियरिंग कॉलेज ही थे छत्तीसगढ़ में कुल... और आज देखिए तो संस्था पचास के पार हो गई है।"

इस बीच कॉफी आ गई। कॉफी की विशिष्ट खुशबू कमरे की हवा में भर गई। राठी साहब कॉफी नहीं लेते। उनके लिए लेमन टी। शायद राठी साहब दिन भर इसी तरह मेहमानों की खातिर तवज्जो में लगे रहते है, आखिर कोई दिन भर कितनी चाय-कॉफी पी सकता है? पर हम लोग पी रहे थे। यह जानने के लिए कि अरबपति पार्टी की चाय-कॉफी कैसी होती है जरा हम निचले लोगों को भी तो पता चले! कप हाथ में लेते हुए लगता रहा, जैसे होटल ताज में चाय की कीमत सौ रुपये होने से मानो चाय-चाय न होकर कुछ और हो जाती है... एक ब्रांड... वैसे ही ये एक अरबपति की कॉफी थी। बहरहाल हम संस्थान की साधारण कॉफी भी कुछ ऐसे ही भ्रम और विभोरता में पी रहे थे। और स्वाभाविक था कि इस विभोरता का उच्चतम प्रदर्शन करना मिश्रा का नैतिक दायित्व था और इस प्रयास में उसका साँवला रंग आज गोरा हो गया था...।

इस समय राठी साहब बता रहे थे, हमारे संस्थान के तीन प्रोफेसर अब विभिन्न विश्वविद्यालयों के चांसलर हो गए है, ये बड़ी उपलब्धि है हमारी।

एस.पी. साहब ने पूछा, "आपके बच्चे क्या कर रहे हैं?''

"सर, यही सँभाल रहे हैं। बेटी इंजिनियरिंग की चेयरमैन है, मैं मेडिकल कोर्सेज देख रहा हूँ। छोटा बेटा अभी जर्मनी से एम.बी.ए. कर रहा है। और आपके बच्चे सर...?''

"एक बेटा है राठी जी, वो एम.बी.बी.एस. कर रहा है बेलगाम से।" फिर जैसे कुछ सोचते हुए बोले, "साला जैसे उसके शहर का नाम है वैसे ही उसकी फीस है - बे-लगाम!'' और हँसने लगे।

एस.पी. साहब की हँसी से वहाँ का माहौल हल्का हो गया। हम लोग भी हँस पड़े। लगा, एस.पी. अवस्थी मजेदार आदमी है, खुशमिजाज! उन्होंने आगे बताया, "बीस-पच्चीस लाख तो अब तक खर्च हो गए। कॉर्डियोलॉजिस्ट बनना चाहता है लड़का। मुझको तो डर है कहीं उसके पढ़ते-पढ़ाते तक फीस भरते-भरते कहीं मेरा ही हार्ट न फेल हो जाए!'' कहकर उन्होंने जोर का ठहाका लगाया। आगे कहा, "राठी साहब, आप बुरा मत मानिएगा, लेकिन आप लोग फीस ही कुछ ऐसी लेते हो कि नौकरीपेशा आदमी भी सड़क पर आ जाए! मैंने अपने बेटे से एक दिन पूछा, डिग्री के बाद तू नौकरी करेगा कि प्रैक्टिस? तो बोला, नौकरी। मैं बोला धत्तेरे की! यार तू बेवकूफ है! तेरे पीछे जो मेरा इतना खर्चा हो रहा है वो वसूल कैसे होगा? मैंने कह रक्खा है बेटा तू प्रैक्टिस ही करना। तेरे हॉस्पिटल खोलने की जिम्मेदारी मेरी!''

राठी साहब ने कहा, "बिलकुल सही सोच रहे हैं सर! सरकारी नौकरी में भला ज्यादा से ज्यादा क्या मिलेगा - एक लाख? सवा लाख? इसमें क्या बनेगा आदमी? इसीलिए तो आप देखो, हमारे यहाँ के सारे अच्छे टैलेंट बाहर जा रहे हैं और लाखों कमा रहे हैं। हमारे यहाँ से तो कितने ही बच्चे बाहर गए हैं।"

"आपके यहाँ हॉस्टल है?'' एस.पी. ने पूछा।

"अरे क्या बताएँ साहब! हमारे हॉस्टल का काम ही नहीं रुक रहा है। हर साल कमरे कम पड़ जाते हैं। लड़कों के हॉस्टल बढ़ाने का इरादा तो हमने पिछले साल से ड्राप करके रखा है, क्योंकि लड़के तो कहीं भी एडजस्ट हो जाते हैं... किराये से ... या पेइंग गेस्ट...। पर लड़कियों के लिए तो सोचना पड़ता है। उनके पैरेंट्स उन्हें कैंपस के बाहर कहीं रखना नहीं चाहते। और बात भी सही है। माहौल बड़ा खराब हो चला है। तो अभी सात सौ लड़कियाँ हॉस्टल में रह रही हैं। अगले साल फिर बनवाना पड़ेगा।"

"और खाना ठीक है?''

"सर, आप हॉस्टल में रहने वाली किसी भी लड़की से पूछ लीजिए खाना कैसा बनता है हमारा! मैं अपने मुँह से अपनी तारीफ करूँ तो अच्छा नहीं लगेगा। सर, सारे मेस में हमारे घर जैसा ही खाना बनता है। आज तक हमको किसी की शिकायत नहीं मिली, जबकि हर हॉस्टलर से साल में पचास बार तो खाने की ही पूछता हूँ। इसमें मुझको कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए!''

"और मिलेगी भी नहीं!'' एस.पी. अवस्थी ने कुछ जोर देकर कहा तो राठी साहब उन्हें तनिक घबराए-से चौंक कर देखने लगे कि कुछ गलत तो नहीं कह दिया मैंने।

"वो इसलिए कि खाने में मारवाड़ियों का कोई मुकाबला नहीं! मैं तो यहाँ बैठकर अपने बेटे के नसीब को रोता हूँ। वो अच्छा नार्थ इंडियन खाना खाने के लिए तरस जाता है! काश कि उसको यहाँ के जैसा खाना मिल पाता! सुनिए एक मजेदार बात! हमारे एक भाई हैं। मुझसे उमर में पाँच साल बड़े। एडवोकेट हैं। तो अक्सर केस के सिलसिले में उनको यहाँ-वहाँ जाना पड़ता है। तो वे सीधे कंडक्टर को पकड़ते हैं। और कहते हैं देखिए, मेरे पास केवल प्लेटफार्म टिकट है, और मुझे फलानी जगह तक जाना है। मान लीजिए, वहाँ तक का किराया तीन सौ है तो वे कंडक्टर को सीधे छह सौ देंगे, और कहेंगे बर्थ का इंतजाम कर दो। ...यों डबल रकम देने पर कंडक्टर उन्हें गौर से देखता है तो भाई साहब उनसे कहते हैं, देखिए, आपकी लिस्ट में अग्रवाल, जैन या मारवाड़ी हों तो मुझे उनके पास की बर्थ मिल जाए तो बहुत अच्छा। इस पर कंडक्टर उनसे पूछते हैं कि क्या आप मारवाड़ी हैं? भाई साहब उनसे बोलते हैं, जी नहीं। मारवाड़ी नहीं हूँ। तो फिर? कंडक्टर हतप्रभ। मैं मारवाड़ी नहीं हूँ लेकिन ये लोग दरअसल खाने-पीने का बहुत-सा सामान लेके चलते हैं, और थोड़ी मित्रता होने पर खाना फ्री में हो जाता है!''

सब हँसे। सबसे ज्यादा चेयरमैन साहब। वे खुश थे कि आमंत्रित मुख्य अतिथि के द्वारा हँसाए जा रहे हैं। वे कहने लगे, 'देखिए, आप आए हैं तो कितना अच्छा लग रहा है। लगता है अपने घर का ही कोई आ गया है! वहीं नेताओं को बुलाओ तो तो उनके दस ठो नखरे सहो! वे तो उद्घाटन करके चले जाएँगे और सहयोग एक नहीं करेंगे। बड़ी मुश्किल होती है इन नेताओं से। मगर क्या करें, उनके बगैर हमारा काम नहीं चलता!''

"और आपके बगैर उनका!''

"हाँ, ये भी बात ठीक है!'' धीरे से बोले राठी साहब। फिर जैसे उन्होंने विषय बदलने के लिहाज से थोड़ा चहककर कहा, "हम अपने गेस्ट को अपने इंस्टीट्यूट का विजिट जरूर कराते हैं। हमने आपका भी विजिट रखा है। इसमें कोई आधा घंटा लगेगा। इसके बाद फंक्शन में चलेंगे।"

अब हम चार लोग चेयरमैन के साथ उनकी संस्था का भ्रमण करने निकले हैं, बाहर। खुली हवा में। जाने क्यों और कैसे मुझे कवि प्रदीप का गाया यह गाना अचानक याद आ गया... आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की... इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की... वंदे मातरम! वंदे मातरम!

बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स। इनमें शानदार एयर कंडीशन हॉल! किसी चमचमाते फाइव स्टार होटल की प्रतीति देते हुए। कमरों या हॉल के दरवाजों के बाजू उस विभाग को दर्शाती नाम-पट्टियाँ... गोल्डन रंग की। राठी साहब हमें एक बड़े हॉल में ले जाते हैं। यह किसी थिएटर की तरह सीढ़ीदार है, क्रमशः ऊँची होती हुई। लंबे-लंबे डेस्क हैं जिनमें हर स्टुडेंट्स के लिए एल.सी.डी. डेस्कटॉप कंप्यूटर फिट है।

राठी साहब बहुत गर्व से बता रहे हैं, "सर, हमारे यहाँ स्टुडेंट्स को कागज-कलम की बिल्कुल जरूरत नहीं। सारा एजुकेशन कंप्यूटर पर। हमारा जोर ई-लर्निंग सिस्टम पर है। ये देखिए, हमारे टीचर इस मिरर से हर बच्चे के कंप्यूटर पर नजर रख सकते हैं। ढेर सारी वेबसाइट्स पर काम करते हैं, लेकिन कोई भी अवांछित वेबसाइट नहीं खोल सकता। हमने इसकी तगड़ी सुरक्षा रखी है। हमको तुरंत इनफार्मेशन मिल जाती है...।"

और हमें वाकई मिरर में सबके कंप्यूटर दिख रहे हैं। कुछेक सिस्टम ऑन है उन के मॉनीटर चमक रहे हैं।

"आइए, आपको एक और चीज बताते हैं...'' उनके कहने पर हम जो मानो किसी म्यूजियम में चकित भाव से सब देख रहे थे, मंत्रमुग्ध चलते जाते हैं उनके पीछे-पीछे।

वे हमें एक कक्ष में ले आए हैं जो चारो तरफ काँच की दीवार से घिरा है। यहाँ दो नौजवान लैपटॉप लिए काम कर रहे हैं।

राठी साहब बताते हैं, "इसको हम अपना कंट्रोलरूम कह सकते हैं। हमारे सारे सिस्टम यहीं से कंट्रोल होते हैं। हमने इसे तैयार किया है। आप देख सकते हैं ये सर्वर...।"

वहाँ मौजूद एक दाढ़ीवाला युवक इसकी टेक्निकल बातें हमको समझाने लगता है। हम सब सर्वर में लाल और हरी टिमकियों को चमकता देखते हुए अपनी अज्ञानता हाँ-हूँ करके छिपाते हुए सिर धुनते रह जाते हैं। हमारी समझ में इतनी हाइली टेक्निकल बातें भला क्या खाक समझ में आतीं? वो भी महज पाँच मिनट में?

हम बाहर आते हैं। बाहर एक बड़ा-सा स्टेज बना है जो तीन तरफ बड़ी बिल्डिंग से घिरा हुआ है। किसी सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए बहुत बड़ा स्पेस है।

वे बता रहे हैं, "ये देखिए, हमारा स्टेज...। इतना बड़ा स्टेज आपको आस-पास के किसी इंस्टीट्यूट में नहीं मिलेगा। चार सौ आदमी बड़े आराम से आ जाएँगे। बीच में इतना बड़ा गार्डन और उसके चारों तरफ स्टुडेंट्स के बैठने की व्यवस्था। हमारे एनुअल फंक्शन यहीं होते हैं। देश के कितने ही जाने-माने सेलिब्रेटी और कलाकार यहाँ आ चुके हैं... सोनू निगम, सुनिधि चौहान, इमरान हाशमी, अमिषा पटेल...। हम हर साल देश के एक-दो सेलिब्रेटी को बुलाते हैं, यही है आज के जनरेशन की चॉइस। खूब इंजॉय करते हैं बच्चे।" फिर मिश्रा से मुखातिब हो के बोले, "मिश्रा जी, अब आपका बेटा भी हमारे परिवार में शामिल हो गया है। वो भी इंजॉय करेगा ये सब!''

श्योर-श्योर! मिश्रा ने मुस्कुराकर कृतज्ञ भाव से हामी भरी, सर, हमने तो उसे अब आपको सौंप दिया है।

हमारे चारों तरफ राठी साहब का साम्राज्य फैला हुआ है... ऊँची-ऊँची बिल्डिंग्स... अत्याधुनिक आर्किटेक्ट... वेल पेंट, वेल फर्निश्ड...। सब कुछ बेहद साफ-सुथरा और निखरा हुआ। जगह-जगह तैनात सफाई कर्मचारी और सुरक्षागार्ड...। मैं सोचने लगा, इतनी जमीनें, इतनी बिल्ड्रिगें, इतने कारोबार, कि हिसाब लगाना मुश्किल! आखिर कैसे सँभालते हैं ये? कैसे मैनेज करते हैं? फिर इनके यहाँ तो हर साल लक्ष्मी यों आती जान पड़ती है जैसे बाँध का गेट खोलने पर पानी का रेला! इनका कई करोड़ों का ये कारोबार... या करोबार का खेल मेरी साधरण बुद्धि से बहुत परे है...।

हम अब बाहर हैं, किसी और बिल्डंग की तरफ जाते। यहाँ तो एक बिल्डिंग से दूसरी में जाने का सिलसिला तो मानो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। चलते-चलते देवांगन फिर मेरे कान में फुसफुसाता है, यार, ये तो यहाँ के अंबानी हैं... टाटा-बिड़ला हैं...।

मैं हताश भाव से मुस्कुराकर रह जाता हूँ और वैसे ही फुसफुसाकर देवांगन के कान में कहता हूँ... देश में सबसे तेज गति से बढ़ने वाला नया कारोबार है शिक्षा का... ये अकूत मुनाफेवाला कारोबार है... तभी तो इतनी जल्दी खड़ा हो गया है इनका ये साम्राज्य...।

गुजरते हुए एक कोने में बाँस सरीखे किसी पेड़ों का झुरमुट देखता हूँ... खूब हरे-हरे! उनकी पतली लचकती शाखाओं में बहुत से घोंसले लटक रहे हैं। घास की बहुत ही महीन बुनावट वाले सुंदर और अद्वितीय घोंसले...। ये बया के हैं।

इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियरिंग बर्ड! मैंने सोचा। और यह सोचकर मुझे राहत मिली कि चलो, इस कैंपस में कुछ तो ऐसा है जो इनकी मुनाफा नीति के कारण नहीं है। लगता है राठी साहब की नजर इन पर नहीं पड़ी, वरना बिना डोनेशन के इनको भी एडमिशन नहीं देते!

कुछ दूर चलने के बाद एक शानदार तिमंजिले इमारत के सामने राठी साहब रुके हैं।

"ये हमारे डेंटल कॉलेज की बिडिंग है।" अपनी गर्वीली विनम्रता से राठी साहब बता रहे हैं, "हमारे यहाँ डेंटल की एक सौ बीस सीट हैं। हर साल इतने डॉक्टर यहाँ से निकल रहे हैं। इस हिसाब से हमने अब तक छह सौ डॉक्टर बना दिए!''

हम ग्राउंड फ्लोर की ग्रे-मॉर्बल की चिकने फर्श वाली गैलरी में चल रहे हैं। इस फ्लोर में बड़े-बड़े हॉल हैं, जिनमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर न जाने कितने डेंटल चेयर्स सेट हैं। इन्हें गिन पाना मुश्किल है।

राठी साहब सगर्व बता रहे हैं, "सर, देखिए हमारे डेंटल चेयर्स। अपने यहाँ वन चेयर फॉर वन स्टुडेंट का फार्मूला है। ऐसी फैसिलिटी आपको आस-पास और कहीं नहीं मिलेगी सर।"

बिल्डिंग के आखिरी सिरे में प्रिंसिपल का ऑफिस है। यहीं से ऊपरी मंजिल के लिए सीढ़ियाँ गई हुई हैं। डेंटल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ। चावरे हैं, अधेड़, मोटे और नाटे व्यक्ति। हमसे लपककर मिलते हैं। खुशमिजाज आदमी जान पड़ते हैं। वे भी हमारे साथ सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं।

पहली मंजिल की गैलरी में हमें पहली बार कुछ ऐसे लोगों की भीड़ नजर आती है जो इसमें फिट बैठते नहीं दिखाई पड़ते। ये गाँवों से आए हुए मरीजों की भीड़ है, दुबले, काले, बीमार।

राठी साहब बहुत उत्साहित होकर हमको बता रहे हैं, सर, ये देखिए हमारी समाज सेवा! लगा, समाज-सेवा कहते हुए उन्हें कुछ विशेष प्रसन्नता हुई है जो चौड़े फ्रेम वाले उनके चश्मे के भीतर से झाँकती आँखें बता रही है। '...ये है हमारा ओ.पी.डी. ...यहाँ हम मरीजों का बहुत नॉमिनल चार्ज पे इलाज करते हैं। आस-पास के गाँवों से आते हैं ये पेशेंट...।

एक केबिन के बाहर लगी बेंच पर बारह-चौदह मरीज बैठे हैं, अपनी बारी का इंतजार करते।

'वेरी गुड!' एस.पी. साहब अपनी खुशी जाहिर करते हैं।

प्रिंसिपल चावरे उनके बाजू में चल रहे हैं। वे कहते हैं, "सर, कभी हमको सेवा का मौका दीजिए न...। कभी आपको दाँत तुड़वाना हो, या दाँतों की कैसी भी तकलीफ हो... हम बहुत सस्ते में करते हैं...।"

'अरे भगवान न करे चावरे साहब कभी वो दिन आए...।'

'अरे ऐसा मत बोलिए सर...', चावरे तुरंत बोले, वरना हम लोगों की रोजी-रोटी का क्या होगा? ये लड़के बेचारे जो सीखने आए हैं कैसे सीखेंगे? ये सीखने के लिए ही तो आए हैं। इसीलिए तो हम हर पंद्रहवें दिन आस-पास के गाँव में कैंप लगाते हैं। फ्री चेक-अप और दवाई फ्री! विदाउट प्रेक्टिस दे वोंट बिकम अ गुड डॉक्टर...।"

सामने ओ.पी.डी. काउंटर है। काँच के पीछे केबिन में एक लड़का बैठा है। हमें देखते ही उठ खड़ा हुआ। राठी साहब उनसे पूछते हैं, "क्यों भाई, कितने पेशेंट हुए आज...?''

लड़का रजिस्टर देखकर बताता है, "सर, एक सौ सत्ताइस।"

राठी जी ने तत्काल कहा, "दो सौ पेशेंट तो रोज के हैं साहब! कई बार तो इनको लौटाना पड़ जाता है।"

आगे डेंटल के अलग-अलग डिपार्टमेंट हैं जिनमें लड़के-लड़कियाँ काम में जुटे हैं, दाँतों से संबंधित तरह-तरह के काम करते। इस हॉल में अपेक्षाकृत नए चेयर्स हैं, बहुतों के तो जिलेटिन कव्हर नहीं निकले हैं। ये नए हैं, चमकते हुए... आकर्षक... पिस्ता रंग के।

चेयरमैन राठी बताते हैं, "सर, ये चेयर्स इंपोर्टेड हैं। इन्हें हमने ब्राजील से मँगवाया है।"

रियली? वाह! एस.पी. साहब के मुँह से निकला, वाह! ये तो बहुत ही बढ़िया है! फिर मुझसे मुखातिब होकर बोले, "बनवासी जी, मैं लेखक तो नहीं हूँ, लेकिन छिट-पुट पढ़ता जरूर हूँ। जरा सोचो, इनमें लेटकर पढ़ने में कितना मजा आएगा!''

उनकी ऐसी मजेदार कल्पनाशीलता पर हम हँस पड़े। इनको भी बैठे-बिठाए जाने क्या-क्या सूझते रहता है!

उन्होंने राठी साहब से पूछा, क्यों राठी साहब, क्या कीमत होगी इनकी? सोचता हूँ एक ठो घर में रख ही लूँ।"

क्यों नहीं! सर, एक-एक कम से कम एक लाख दस हजार की होगी!

बाप रे! तब तो ये आपको ही मुबारक! मुस्कुराकर बोले।

"चलिए सर, अब हम अपने फंक्शन हॉल में चलते हैं।" राठी साहब ने कहा।

चलिए!

हम उनके सभा कक्ष में हैं। बड़ा और खूबसूरत हॉल। हॉल फाइनल इयर के स्टुडेंट्स से भरा हुआ... जिनमें ज्यादातर लड़कियाँ हैं। अपनी इस फेयरवेल पार्टी के लिए उन्होंने भिड़कर हॉल की दीवरों, सीलिंग की साज-सज्जा की है, रंग-बिरंगे फूलों, रिबन और गुब्बारों से। ये किसी के जन्मदिन या शादी के सालगिरह का माहौल ज्यादा लग रहा है, डॉक्टरों के फेयरवेल पार्टी का कम।

कुछ ही देर बाद कार्यक्रम शुरू हो गया। सभी का बुके से स्वागत। स्वागत भाषण राठी साहब दे रहे हैं जिसमें वे एस.पी. अवस्थी साहब को बहुत कर्मठ और ईमानदार बता रहे हैं, और उनके आने को अपनी संस्था का बहुत बड़ा सौभाग्य।

इसके बाद मुख्य अतिथि का भाषण।

एस.पी. साहब ने संस्था के चेयरमैन और प्रिंसिपल को अपने यहाँ बुलाने का धन्यवाद देते हुए कहते हैं, "प्यारे नौजवान दोस्तो, मुझे लगता है इन लोगों ने गलत आदमी को आपके सामने खड़ा कर दिया है।

हमारा विभाग तो ऐसे ही मारने-पीटने के लिए बदनाम है। बहरहाल, अभी हम लोगों को आपके कॉलेज का भ्रमण करवाया गया, जिसे देखने के बाद मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि इससे बड़ा, प्रतिष्ठित और सारे इक्विपमेंट से सुसज्जित इंस्टीट्यूट इस प्रदेश में दूसरा और कोई नहीं है! (तालियाँ) और आप लोग भाग्यशाली हैं जो ऐसे हर लिहाज से परफेक्ट, प्रोफेशनल और बेहतरीन इंस्टीट्यूट में पढ़ाई कर रहे हैं। (राठी साहब के इशारे पर तालियाँ) आप लोग तरक्की कीजिए, अच्छे कुशल डॉक्टर्स बनिए और देश की सेवा कीजिए। डॉक्टर्स आज अपनी मोटी फीस के लिए बहुत बदनाम हैं (हँसी)। मैं आशा करता हूँ आप कम फीस लेकर गरीबों की सहायता करेंगे। अपनी सेवाएँ शहरों में नहीं, गाँवों में देंगे, जहाँ आप जैसों की बहुत जरूरत है। मुझे फिल्म 'काला पत्थर' के लेडी डॉक्टर की याद आ रही है... जो राखी ने किया था, जो कोयला खदान के गरीब, लाचार और बीमार मरीजों का इलाज करती है। मुझे डॉक्टर कोटनिस की याद आ रही है जिस पर वी. शांताराम ने फिल्म भी बनाई थी - 'डॉ. कोटनिस की अमर कहानी'। आप लोगों ने सुना है इनका नाम? (श्रोताओं में सन्नाटा) डॉक्टर कोटनिस चीन गए थे। वहाँ महामारी फैली थी और उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बगैर लोगों की जान बचाने में लगे रहे। ठीक ऐसे ही हमारे गांधीजी कुष्ठ रोगियों की सेवा किया करते थे। आप सबको इन महान लोगों से प्रेरणा लेकर देश के लिए काम करना चाहिए। मैं आप सबके अच्छे कैरियर और सुखमय भविष्य की कामना करता हूँ।"

तालियाँ!

और ये तालियाँ यहाँ वैसी ही औपचारिक थीं जैसे बड़े-बुजुर्गों की बातें हम एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। बल्कि उनकी असल उत्सुकता और रोमांच भाषण के बाद होने वाले अपने डांस कार्यक्रम को लेकर थी... बेहद बेसब्र उत्सुकता! मानो इसी में उनका भविष्य टिका हो! सभी जैसे नाचने-गाने को एकदम बेताब! जैसे बंद पिंजरे की खिड़की खुलते ही उड़ जाने को आतुर पंछी...।

क्योंकि इधर हम लोग नाश्ता कर रहे थे, उधर मंच पर उनका धूम-धड़ाके वाला डांस शुरू हो चुका था - 'मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए... मैं झंडू बाम हुई... डार्लिंग तेरे लिए...।


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